- शशि पाधा
अदृश्य
कौन तुम चन्दन से भीगे
साँसों में राम जाते हो ?
कौन तुम मन वीणा के
सोये तार जगाते हो ?
कौन तुम ?
धरती जब भी पुलकित होती
कर तेरे ने छुया होगा
पुष्प पाँखुरी जब भी खिलती
अधर तेरे ने चूमा होगा
वायु की मीठी सिहरन में
क्या तुम ही मिलने आते हो ?
कौन तुम ओस कणों में
मोती सा मुस्काते हो ?
कौन तुम ?
मन दर्पण में झाँक के देखूँ
तेरा ही तो रूप सजा है
नयन ताल में झिलमिल करता
तेरा ही प्रतिबिम्ब जड़ा है
मेरा यह एकाकी मन
क्या तुम ही आ बहलाते हो ?
कौन तुम रातों के प्रहरी
जुगनू सा जल जाते हो ?
कौन तुम ?
रँग तेरे की चुनरी प्रियतम
बारम्बार रँगाई मैंने
पथ मेरा तू भूल न जाए
नयन -ज्योत जलाई मैंने
कभी कभी द्वारे पे आ, क्या-
तुम ही लौट के जाते जो ?
कौन तुम अवचेतन मन में
स्पंदन बन कुछ गाते हो ?
कौन तुम ?
ऐसे तुम को बांधु मैं
इस बार जो आओ, लौट न पायो
बंद करूँ मैं नयन झरोखे
चाह कर भी तुम खोल न पायो
अनजानी सी इक मूरत बन
क्या तुम ही मुझे सताते हो ?
कौन तुम पलकों में सिमटे
सपने से सज जाते हो ?
कौन तुम ?????
*******
- रचना श्रीवास्तव
1. मेरे चहुँ ओर छाया कुछ कोहरा सा है
हथेलियों पर थिरकता है
पलकों की झालर से लिपटता है
क्षितिज जी बूंदों में भीग के
स्वयं से स्वयं में सिमटता है
ह्रदय के दर्पण में सोया जो एक चेहरा सा है
मेरे चहुँ ओर छाया कुछ कोहरा सा है
शब्द ताखे पर सोयें है उतरते नहीं
गेसू खुले पर हवा में बिखरते नहीं
आँखों की ढिबरी में जलता है कुछ
पर काजल बन उन में सजता नहीं
क्यों छलकता नहीं लब पर जो ठहरा सा है
मेरे चहुँ ओर छाया कुछ कोहरा सा है
चांदनी जब छम छम उतरती है
चाँद की हसीं भी तब बिखरती है
देख सुन्दरता लजाती है धरती
सकुचा के अपनी ही ड़ाल से लिपटती है
चमक जाता है मौसम जो हरा हरा सा है
मेरे चहुँ ओर छाया कुछ कोहरा सा है
*******
2. वो मेरा दोस्त
पसीने से भीगे तन को
छुजाये जो हवा
उस शीतलता का
अहसास वो मेरा दोस्त
कबाडी को बेचने से पहले
रद्दी में मिलजाए
पहला प्रेमपत्र
उस ख़ुशी सा वो मेरा दोस्त
भीड़ भरी बस में
हो के खडा
कोई दे दे बैठने की जगह जैसे
उस आराम सा मेरा वो मेरा दोस्त
नौकरी की अर्जी भेज न पाए
हो कल अन्तिम तारीख़ भी
एसे में हो जाये अचानक छुट्टी
उस सुकून की मानिन्द वो मेरा दोस्त
पहली फुहार की महक सा
बर्फ में फ़र वाले कोट सा
पथरीली राहों में चट्टी सा
वो मेरा दोस्त
गैरों को
मेरे नाभि में अमृत होने का
राज बता रहा था
और मै अपने साथ लिखे उसके नाम को
गाढा कर रहा था
*******
3. मेरी बिंदिया लगा जाओ
तिरंगा ओढ़ गए ,न आओगे कहते हैं
पर खूंटी पर टंगी वर्दी
मेज पर रखी मुस्कान
छुअन का अहसास कराती है
क्यों तुम्हारी खुशबु
मेरे बदन को सहलाती है
तुम्हारे हाथ की हरारत
मेरे सपनो को पिघलाती है
पगली है कहते है सभी
पर क्यों हर शय
तेरी परछाई दिखाती है
अंचल में भर जुगनू
तेरी राह पर बिछा आई हूँ
तुम आओगे इस उम्मीद में
खुला दरवाजा छोड़ आई हूँ
हवा की ये दस्तक
मुझे रात भर जगाती है
मै भाग के दरवाजे तक जाती हूँ
तो खामोशी मुझपे मुस्काती है
पागल हूँ कह के कमरे में
बंद कर दिया है
तस्वीर भी तेरी
मुझसे लेलिया है
तुम आओ तो लौट न जाओ
ये बात मुझको डराती है
आज फिजाओं में चाहत के गीत है
हर किसी के पास उस का मीत है
तुम आ जाओ
तो प्रीत मेरी भी अंगडाई ले
मांग मेरी सजे
इन सूनी कलाइयों में
कुछ चुडिया चढें
बिन्दिया जो इन्होने छीन ली है
आ के लगा जाओ
हो गए बहुत दिन अब तो आ जाओ
*******
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“माँ सरस्वती-शारदा”
ॐ श्री गणेशाय नमः !
या कुंदेंदु तुषार हार धवला, या शुभ्रवस्त्रावृता
या वीणा वरदंडमंडितकरा या श्वेतपद्मासना |
याब्रह्माच्युत शंकरप्रभृतिभिर्देवै सदा वन्दिता
सा मां पातु सरस्वती भगवती निश्शेषजाढ्यापहा ||
या कुंदेंदु तुषार हार धवला, या शुभ्रवस्त्रावृता
या वीणा वरदंडमंडितकरा या श्वेतपद्मासना |
याब्रह्माच्युत शंकरप्रभृतिभिर्देवै सदा वन्दिता
सा मां पातु सरस्वती भगवती निश्शेषजाढ्यापहा ||
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सम्पादक मंडल
- Narendra Vyas
- मन की उन्मुक्त उड़ान को शब्दों में बाँधने का अदना सा प्रयास भर है मेरा सृजन| हाँ, कुछ रचनाएँ कृत्या,अनुभूति, सृजनगाथा, नवभारत टाईम्स, कुछ मेग्जींस और कुछ समाचार पत्रों में प्रकाशित हुई हैं. हिन्दी साहित्य, कविता, कहानी, आदि हिन्दी की समस्त विधाएँ पढने शौक है। इसीलिये मैंने आखर कलश शुरू किया जिससे मुझे और अधिक लेखकों को पढने, सीखने और उनसे संवाद कायम करने का सुअवसर मिले। दरअसल हिन्दी साहित्य की सेवा में मेरा ये एक छोटा सा प्रयास है, उम्मीद है आप सभी हिन्दी साहित्य प्रेमी मेरे इस प्रयास में मेरा मार्गदर्शन करेंगे।
ADRISHYA AUR MERI BINDIYA LAGA JAO...........DONO HI KAVITAYEIN BEHAD UMDA LEKHAN KA PARICHAYAK HAIN.........MERI BINDIYA MEIN TO BHAVON KO AISE GADHA HAI JAISE SAB SAMNE HI GHATIT HUAA HO AUR ADRISHYA MEIN ISHWAR KO JO NAMAN HAI USKE LIYE SHABD NHI HAI.........AABHAR.
ReplyDeleteSashi Padha ji ko padhna apne aap ko prakrtuti ke saundary ke saath jodna hai. Dharti ki saundhi mehek, hawaon ke madmaate jhonke aur labon ki thartharaahat !!!
ReplyDeleteकौन तुम चन्दन से भीगे
साँसों में राम जाते हो ?
कौन तुम मन वीणा के
सोये तार जगाते हो ?
कौन तुम ?
Nayi tazgi apne shabdon mein samete hue!