जब तक उनका नाम रहेगा - तब तक सूरज-चांद रहेंगे


- सूर्यकुमार पांडेय
धन-दौलत, आल-औलाद, नौकर-चाकर, बंधु-बांधव, जीते जी इनमें से जितना कुछ हासिल किया जा सकता है, वे हासिल कर चुके थे। अब वे अमर होना चाहते थे। यही एक ख्वाहिश अधूरी थी।
किसी ने नेक सलाह दी, बिना मरे अमर नहीं हुआ जा सकता है। मगर वे मरना नहीं चाहते थे। मर-मरा गए तो कैसे पता चलेगा कि वे अमर हुए भी या नहीं।
पर और कोई जुगत भी नहीं थी। उन्होंने अनमने तरीके से इस धरती का भार कम करने का निर्णय लिया।
आखिरकार, नेक सलाह की कद्र करते हुए वे मर ही गए। परिजनों को इस बात का संतोष हुआ कि मरने से पहले उन्होंने किसी चीज की, चाहे वह एक अदनी-सी सलाह ही क्यों न थी, कद्र तो की !
इधर इनकी सांस रुकी, उधर लोगों ने चैन की सांस ली। जब तक सूरज-चांद रहेगा... नामक नारा गूंजा। वे अमर हो गए।
उन्होंने मरने से पहले अपने अमरत्व के लिए क्या कुछ नहीं किया? लगभग वे सारे के सारे हथकंडे, जो हो सकते हैं, अपनाए। अंतिम दिनों में उन्हें एक अजीब लत पड गई थी। कुछ लोग इस लत को ’अमरत्व- फोबिया‘ कहते थे।
जो कोई भी उनसे मिलने आता था, वे उससे पूछते, ’और क्या हालचाल हैं? सब कुशल तो है!‘
मिलने वाला कहता, ’आपकी कृपा से सब ठीक-ठाक ही है!‘
वे पलट कर कहते, ’क्या खाक ठीक-ठाक है! तुमने तो मुझे पहचान भी लिया, वरना आज के जमाने में लोग अपने बाप-दादाओं तक को नहीं पहचानते है। तुम्हें अपने लडदादा का नाम पता है...!‘
भेंटकर्ता अपनी बगलें झांकने लगता।
तब वे समझाते, ’यही तो कठिनाई है। जब अपनी ही औलादें याद नहीं रखती हैं, तब गैरों से क्या उम्मीद की जाए?‘ फिर वे कहते, ’इस नाते मैं सोचता हूं, अपने जीवन काल में ही ऐसा कुछ कर जाऊं कि मेरा नाम अमर रहे। ‘
सचमुच वे अपने जीवनकाल में कुछ नया करना चाहते थे । नाम के लिए कुएं खुदवाने में उन्हें कोई रुचि नहीं थी। वे दूसरों के लिए गड्ढा खोदने में विश्वास रखते थे। फलदार वृक्ष लगवाना, प्याऊ बनवाना या फिर मंदिर-धर्मशाला के निर्माण को भी वे वाहियात चीजें मानते थे।
ये सब अमर होने के घिसे-पिटे फार्मूले थे, जो बाबा आदम के जमाने से चले आ रहे थे। वे इस मामले में दूसरों का अनुकरण नह करना चाहते थे। उनका इरादा था कि वे ऐसा कुछ कर जाएं, जो दूसरों के लिए अनुकरणीय बने।
वे प्रगतिशील थे। देश पर कुर्बान होने को परंपरावादियों का षडयंत्र मानते थे। वे मर कर भी परंपरावादी नहीं कहलाना चाहते थे। उनके पूर्वजों को गरीबी परंपरा में मिली थी। उन्होंने गरीबी की इस खानदानी परंपरा को एक ठोकर में तोड दिया था। अब वे इलाके के सबसे धनीमानी लोगों में प्रमुख थे । शालीनता उनकी पुश्तैनी विरासत थी। उन्होंने इसको ऐसा छोडा कि वह आजतक उनके पास फटकना तो दूर,उनकी परछांई तक से चार हाथ दूर चलती थी।
उन पर अमरता- प्राप्ति का भूत सवार था।
यह भूत उन पर यूं ही नहीं चढा था। पहले वे ठीकठाक थे। अचानक न जाने क्या हुआ और एक नेक बंदे ने उन्हें यह सलाह दे डाली कि आपने सब कुछ कर-धर लिया। सारे सुख उठा ले गए। अब कम से कम इस दुनिया से उठने से पहले कुछ ऐसा कर जाइए कि आपका नाम मरने के बाद भी चलता रहे।
पहले उन्हें यह भ्रम था कि उनका नाम , बाद मरने के बेटों-बेटियों के सहारे भी चल सकता है। पर बेटे बाप पर नहीं गए थे। बेटियां मां पर चली गई थीं। तब वे मन मसोस कर रह गए। उन्हें अहसास हुआ, नाम के लिए कुछ और भी करना पडता है।
तत्पश्चात् वे अमर होने की जुगाड में लग गए।
उन्होंने गांधी, पटेल, सुभाष, आजाद वगैरह की जीवनियां अटक-अटक कर पढीं। मगर इन सब लोगों के अमर होने की राहें उन्हें कठिन लगीं। कठिन ही नहीं, नागवार, दुश्वार और अटपटी भी लगीं।
एक बार उन्होंने अमरत्व लूटने की इच्छा से कविताएं लिखने की कोशिश की। दो-चार को सुनाईं। कुछ एक लोक गायकों से जबरदस्ती गवाईं। किंतु वे मेलों-ठेलों तक में भी लोकप्रिय न हो सकीं। वे कबीर बनना चाहते थे, मगर समीर भी न बन पाए।
तब उन्होंने सीमित संसाधनों में महान कार्य किया। लेखपाल को पटा कर ग्राम समाज की जमीन अपने नाम करा ली। भूमिहीनों के पट्टों, चकरोडों यहां तक कि मेड की जमीनों तक पर अपना नाम दर्ज करवा लिया। रातोरात पोखर के किनारे अपने नाम का पत्थर गडवाया। प्राथमिक पाठशाला और पंचायत भवन पर अमरत्व का झंडा गाड दिया।
वे रोजगार योजनाओं से प्राप्त सरकारी धन से निर्मित संफ मार्ग से चलते हुए मुख्य सडक पर आ गए। उस सडक के किनारे उन्होंने एक भव्य प्रवेश-द्वार निर्मित करवाया। चूंकि यह द्वार राजकोष के अंश से बना था, इस नाते उसकी भव्यता अमर लोक को मात दे सकने की क्षमता रखती थी। उस दिव्य प्रवेश-द्वार के मुंह पर उन्होंने अपना नाम मय वल्दियत खुदवा मारा ।
अब वे पूर्णरूपेण निश्चिंत थे। अमर होने का पुख्ता इंतजाम हो चुका था। अब सूरज-चांद भी उनका कुछ नहीं बिगाड सकते थे।
जब तक उनका नाम रहेगा,तब तक सूरज-चांद रहेंगे।

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