Archive for 8/1/11 - 9/1/11

प्रकृति का आँगन {ताँका }- डॉ. हरदीप कौर सन्धु

प्रकृति का आँगन {ताँका }

ताँका शब्द का अर्थ है लघुगीत | यह  जापानी काव्य की एक  पुरानी काव्य शैली है ।  हाइकु का उद्भव इसी काव्य शैली से हुआ माना जाता है  । इसकी संरचना 5+7+5+7+7=31वर्णों की होती है।  

 1.
लेते हैं जन्म
एक ही जगह पे
फूल  काँटे
एक सोहता सीस 
दूसरा दे चुभन
2.
लेकर फूल
तितलियों को गोद
रस पिलाता
वेध देता बेदर्द
भौरों का तन काँटा
3.
चंचल चाँद
खेले बादलों संग
आँख-मिचौली
मन्द-मन्द मुस्काए
बार-बार छुप जाए
4.
दूल्हा वसन्त
धरती ने पहना
फूल- गजरा
सज-धज निकली 
ज्यों दुल्हन की डोली 
5.
ओस की बून्द
मखमली घास पे 
मोती बिखरे 
पलकों से  चुनले
कहीं  गिर  न जाएँ !
6.
दुल्हन रात 
तारों कढ़ी चुनरी
ओढ़े यूँ बैठी 
मंद-मंद मुस्काए 
चाँद दूल्हा जो आए !
7.
बिखरा सोना
धरती का आँचल
स्वर्णिम हुआ
धानी -सी चूनर में
सजे हैं हीरे- मोती
8.
पतझड़ में
बिखरे सूखे पत्ते
चुर्चुर करें
ले ही आते सन्देश
बसंती पवन का
9.
पतझड़ में
बिन पत्तों के पेड़
खड़े उदास
मगर यूँ न छोड़ें
वे  बहारों की आस
10.
हुआ  प्रभात
सृष्टि ले अँगड़ाई
कली मुस्काई
प्रकृति छेड़े तान
करे प्रभु का गान
 **************
नाम डॉ. हरदीप कौर सन्धु

जन्म 17  मई 1969  को बरनाला (पंजाब) में।
शिक्षा : बी. एससी . बी.एड. एम.एस सी., (वनस्पति विज्ञान), एम. फ़िल., पी.एच.डी.
सम्प्रति :कई वर्ष पंजाब के एस. डी. कालेज में अध्यापन (बॉटनी लेक्चरार), अब सिडनी (आस्ट्रेलिया में)। 

कार्यक्षेत्र 

हिंदी व पंजाबी में नियमित लेखन। अनेक रचनाएँ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित।

हिन्दी की अंतर्जाल पत्रिका अनुभूति, रचनाकार  , पंजाब स्क्रीन, गवाक्ष एवं सहज साहित्य  में कविताएँ पुस्तक समीक्षा, कहानी ,हाइकु ,ताँका तथा चोका प्रकाशित |


पंजाबी की अंतर्जाल पत्रिका पंजाबी माँ , लफ्जों का पुल , लिखतम, शब्द सांझ, पंजाबी मिन्नी ,पंजाबी हाइकु, पंजाब स्क्रीन एवं साँझा पंजाब में कविता , कहानी , हाइकु तथा ताँका प्रकाशित |

वस्त्र-परिधान, विज्ञापन की दुनिया , अविराम त्रैमासिक आदि पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित , कुछ ऐसा हो  और चन्दनमन संग्रह में हाइकु प्रकाशित ।

वेब पर हिन्दी हाइकु नामक चिट्ठे का सम्पादन। इसके अतिरिक्त पंजाबी वेहडाशब्दों का उजाला,  और देस परदेस नाम से वे अन्य चिट्ठे लिखना |

उत्कृष्ट रुचियाँ :   

साहित्य के प्रति रुझान के साथ-साथ  रंग एवं चित्रकला से हरा लगाव ,रंगकला की अनेक विधाओं में तैल-चित्रण, सिलाई -कढ़ाई तथा  क्राफ्ट - कार्य आदि |

 विशेष उल्लेख :



'शब्द' आशीष स्वरूप मुझे विरासत में मिले |लेखन के प्रति झुकाव तथा बुनियादी साहित्य संस्कार मुझे अपने ननिहाल परिवार से मिला  शब्दों का सहारा  मिला होता तो मेरी रूह ने कब का दम तोड़ दिया होता |  इन शब्दों की दुनिया ने मुझे  कभी अपनों  से दूर होने का अहसास  नहीं होने दिया |  विदेश  में रहते हुए भी मुझे मेरा गाँव कभी दूर नहीं लगा | हर पल यह मेरे साथ ही होता है मेरे ख्यालों में | मैं हिन्दी व् पंजाबी दोनों भाषा में लिखती हूँ | लिखना कब शुरू किया ...अब याद नहीं ....हाँ इतना याद है    कि जब कभी  बचपन में लिखा ....माँ और पिता जी ने थपकी व्  शाबाशी दी जिसकी गूँज आज भी मेरे कानों में मिसरी घोलती है तथा लिखने की ताकत बनती है जब कभी दिल की गहराई से कुछ महसूस किया ....मन-आँगन में धीरे से उतरता चला गया | इन्हीं खामोश लम्हों को शब्दों की माला में पिरोकर जब पहना तो ये रूह के आभूषण बन सुकून देते रहे |साथ--साथ खाली पन्नों  पर अपना हक जमाने लगे और भावनाएँ शब्दों के मोती बन इन पन्नों पर बिखरने लगीं  |
 ई - मेल : hindihaiku@gmail.काम

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डॉ. मालिनी गौतम की कविताएँ






खंजर

बरसों पहले
जो खंजर
तुमने उतारा था
सीने के आर-पार
वहाँ से रिसता है
लहू आज भी..
स्याह अंधेरी रातों में
चीख मारकर
बैठ जाती हूँ मैं
जब सनी होती है
मेरी सफेद चादर
खून से....
मेरी हथेली पर
उगा चाँद
नीचे गिरकर
हो जाता है चकनाचूर
और बिलखने लगते हैं
टुकड़े फर्श पर..
नीली रौशनी पर
पुत जाती है
दर्द की कालिख
 अब तो चाँद भी डरता है
मेरे नज़दीक आने से...
सुई-धागा लिये मैं
रात-रात भर
सीती रहती हूँ
फटे हुए जख्मों को,
या खुदा....रहम कर
कब तक धोती रहूँगीं मैं
लहू के दाग
इन सफेद चादरों से।
***
एक सोता मीठे पानी का

  तुम छल किसे रहे हो.?
मुझे या अपने आप को...?
दूर किससे भाग रहे हो...?
मुझसे या अपने आप से...?
क्या साबित करना चाहते हो
कि तुम्हें मेरी परवाह नहीं...?
मेरे होने न होने से
तुम्हे कोई सरोकार नहीं...?
तो क्यों मेरी पायल की
खनक सुनकर
तुम सतर्क हो जाते हो..
क्यों मौका मिलते ही
कनखियों से मुझे
देखना नहीं चूकते..
जब चोट मुझे लगती है
तो रंगत तुम्हारी फीकी पड़ जाती है..
जब मेरा ध्यान
तुम्हारी ओर नहीं होता
तुम गौर से पढ़ते रहते हो
मेरे जर्द हो चुके पीले चेहरे को..

इस तरह दूर रह-रहकर
क्या भुला पाओगे मुझे..
कहाँ-कहाँ से मिटा सकोगे
मेरे होने के निशानों को..
मैं तो नज्म बनकर
उतर चुकी हूँ
तुम्हारे जिस्म में
दर्द बनकर बहती हूँ
तुम्हारी नसों में
कतरा-कतरा काटकर क्या
मुझे अलग कर पाओगे...
मेरे साथ-साथ तुम भी तो
कटते चले जाओगे...
तो नज्म को
गुनगुना क्यों नहीं लेते..
इस बूँद-बूँद अहसास को
निचोड़कर अपने सीने में
जज्ब कर लो
शायद बरसों से जमें
खारे पानी के दाग
धुल जाएँ
और मीठे पानी का एक सोता
फूट निकले
तुम्हारे भीतर भी कहीं.....
***

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स्वतंत्र दिवस के पावन पर्व पर स्वर्गीय इकबाल जी के बह्र में दो ग़ज़लें- पुरुषोत्तम अब्बी "आज़र "

स्वतंत्र दिवस के पावन पर्व पर स्वर्गीय इकबाल जी के बह्र में यह ग़ज़लें पेश-ए-खिदमत हैं !

सारे जहाँ  से  अच्छा  हिन्दुस्तां हमारा
मफ़ऊलु ,फ़ाइलातुन , मफ़ऊलु .फ़ाइलातुन
2   2  1   2  1  2  2     2    2 1   2  1  2 2
                        















                               १
अपने वतन की ख़ुशबू ,फैली है कुल जहाँ में
रौशन हुए हैं   तारे,  धरती  के   आसमाँ  में

हर पत्ता है अनूठा,हर गुल की छवि निराली
सौ रंग के ये   बूटे हैं,  किसके गुलसिताँ में

धामे   हुए हैं  सब ही,  इक दूसरे के बाज़ू
चेहरे  अलग- अलग हैं,वैसे  तो  कारवाँ   में

इतिहास की जबाँ पर,ज़िंदा रही है अब तक
इक  दास्ताँ  हमारी.  दुनिया  की  दास्ताँ  में

नादान हैं वो  "आज़र"  जो जानते   नहीं   हैं
यदि  शँख  में है जादू, तो  रंग  हैं   अजाँ में

                               २
अपने लहू से सींचो ,अब प्यार के चमन को
जड़ से उखाड़ फेंको ,तुम नफरतों के वन को

ये  विश्व   है   तुम्हार ,ये   विश्व  है  तुम्ही से
धरती को जगमगाओ ,रौशन करो गगन को

माना है काम मुश्किल ,पर कर सको तो कर लो
खुद को बदल के   देखो, पूरा   करो    वचन को

धरती पे बोझ बन कर ,जीने से क्या है हासिल
कुर्बान हक़ पे करदो ,मिटटी  के  तन- बदन को

चमकेगा तू भी "आज़र" ,तारों  के  साथ नभ में
चुप-चाप सह सका गर जीवन की हर तपन  को

 








आभार
आपका अपना
पुरुषोत्तम अब्बी "आज़र

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कविताएँ- संजय आचार्य 'वरुण'

पेंटिंग- अमित कल्ला

१.
पीड़ा को भी
नहीं देखा प्रत्यक्ष
किया है केवल
महसूस
जैसे तुमको
ईश्वर
***
२.
अचकचाकर
तोड़ दिया
जब तुमने
हमारा रिश्ता
रिश्ता तब भी था
हमारे बीच
कोई रिश्ता
न होने का
***
३.
तुम्हारे हाथों में
जो खुली है
वक्त की किताब
पृष्ठ हूँ उसका
मैं भी तो एक
अंकित है मुझ पर
जितने भी अक्षर
टकराकर
तुम्हारी आँखों से
बनकर अर्थ
ढल रहे हैं
ह्रदय में तुम्हारे

पृष्ठ हूँ
पलट दिया जाऊंगा
पर सुकून है
सहेजा तो रहूँगा
वक्त की किताब में
हमेशा
और
अर्थाया जाऊंगा
न जाने कितनी बार
***
४.
दर्द
अब नहीं देता
कोई अहसास
सहते-सहते
दर्द को
दर्द ही
हो गया हूँ जो
***
५.
मुझमे है
एक अनंत
या कि
मैं हूँ
एक अनंत में|

जन्मा होऊंगा
जिस विराट से मैं
क्या वही विराट
जनमता रहा है
मुझमे?
हर बार
जब भी उतरता हूँ
मैं
शब्द में
और
शब्द मुझमे
***
कवि, आलोचक एवं समीक्षक संजय आचार्य ’वरुण’ का जन्म ३ अगस्त १९८० को बीकानेर में हुआ. वरुण की एक काव्य पुस्तक ’मुट्ठी भर उजियारो’ (राजस्थानी) प्रकाशित हो चुकी है तथा आपका हिंदी काव्य संकलन 'सुन ओ ठहरे हुए एक दिन' शीघ्र प्रकाश्य है.

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नज़्म- भरत तिवारी



एक मीठी मुस्कान ले आना
जब आना तुम......

भरत तिवारी
जीने के अरमान ले आना
जब आना तुम......

धूल सनी डायरी तुम्हे ही सोंचती होगी
कुछ गीत ग़ज़ल कुछ शेर नज़्म ले आना
जब आना तुम......

करके बसेरा है पसरा गहरा ठंडा सन्नाटा
बेपरवाह हँसी, लबों की गर्माहट ले आना
जब आना तुम......

मंदिर मस्जिद गिरजों मे तो मिले नहीं
ढूँढ के जो मिल जायें भगवान ले आना
जब आना तुम......

साथ नहीं है देता वक्त और वक्त के लोग
बढ़ती सी इस उम्र का चैन आराम ले आना
जब आना तुम......

है हमसे मजबूत हमारे रिश्ते की बुनियाद
इस दुनिया की खातिर कोई नाम ले आना
जब आना तुम......

समय रुका है जहाँ छोड़ के गये थे तुम
गये वक्त मे देना था जो प्यार ले आना
जब आना तुम......

साँसें घुटती हैं अब ईंट की छत के नीचे
छोटा सा आँगन और पेड़ की छाँव ले आना
जब आना तुम......

एक ज़माना गुज़रा सुने हुए दिल को
'भरत' की गुम धड़कन को भी ले आना
जब आना तुम......

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डॉ० भावना कुँअर की कविताएँ


1 काले धब्बे

आँखों के नीचे
दो काले स्याह धब्बे
आकर ठहर गए
और नाम ही नहीं लेते जाने का
न जाने क्यों उनको
पसंद आया ये अकेलापन।


2. आँखे

आँखे जाने क्यों
भूल गई पलकों को झपकना
क्यों पसंद आने लगा इनको
आँखों में जीते-जागते
सपनों के साथ खिलवाड़ करना …
क्यों नहीं हो जाती बंद
सदा के लिए
ताकि ना पड़े इन्हें किसी
असम्भव को रोकना ।


3.

दुनिया ने जब भी दर्द दिया
तुमने सदा सँभाला मुझे
क्या सोचा है कभी
जो दर्द तुम दे गए
उसको लेकर मैं किधर जाऊँ?
ढ़ाल बनकर खड़े होते थे तुम
और अब हाथ में तलवार लिए खड़े हो
क्या कभी सोचा तुमने
कितने वार खाएँ हैं मैंने
इस बेदर्द जमाने के
तो क्या तुम्हारा वार जाने दूँगी खाली?
तो फिर
मत सोचो इतना
और चला डालो अपना भी वार
मत चूको
वरना रह जाएगी
तुम्हारी तमन्ना अधूरी
तुम जानते हो
हाँ, बहुत अच्छी तरह
कि मैं नहीं देख पाती किसी की भी
अधूरी तमन्नाएँ
उन्हीं के लिए तो जिंदा रही अब तक
सबकी तमन्ना पूरी कर
मंजिल तक ले जाना ही तो काम है मेरा
फिर तुमको कैसे निराश होने दूँ मैं
चलो तुम्हें भी तो
दिखा दूँ मंजिल का रास्ता
और फिर टूट जाएँ ये साँसे
तो मलाल ना होगा
टूटती इन साँसों के लबों पर
बस इक तेरा ही नाम होगा ।

4.

चेहरे पर पड़ी सिलवटें
आज पूछ ही बैठी
उनसे दोस्ती का सबब
मैं कैसे कह दूँ कि
तुम मेरे प्यार की निशानियाँ हो ।

नाम: डॉ० भावना कुँअर
निवास स्थान: ऑस्ट्रेलिया (सिडनी)
शिक्षा: हिन्दी व संस्कृत में स्नातकोत्तर उपाधि, बी० एड०, पी-एच०डी० (हिन्दी)
शोध-विषय: 'साठोत्तरी हिन्दी गज़लों में विद्रोह के स्वर व उसके विविध आयाम'।
विशेष: टेक्सटाइल डिजाइनिंग, फैशन डिजाइनिंग एवं अन्य विषयों में डिप्लोमा।
प्रकाशित पुस्तकें: तारों की चूनर ( हाइकु संग्रह), साठोत्तरी हिन्दी गज़ल में विद्रोह के स्वर
प्रकाशन: स्तरीय पत्र-पत्रिकाओं में कविता, कहानी, गीत, हाइकु, बालगीत, लेख, पुस्तक समीक्षा, आदि का अनवरत प्रकाशन। अनेक राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय अंतर्जाल पत्रिकाओं में रचनाओं एवं लेखों का नियमित प्रकाशित पत्रकाओं जैसे- लोक गंगा, उंदती, वस्त्र परिधान, अविराम, हाइकु दर्पण, कुछ ऐसा हो, तारिका,पाठक मंच बुलेटिन, भाषा मंजूषा आदि।
अपने स्वनिर्मित जालघर (वेबसाइट):
http://dilkedarmiyan.blogspot.com/ पर अपनी नवीन-रचनाओं का नियमित प्रकाशन।
अपने स्वनिर्मित जालघर (वेबसाइट):
http://drbhawna.blogspot.com/ पर कला का प्रकाशन
संपादन: हाइकु संग्रह- “चंदनमन” में, रामेश्वर काम्बोज हिमांशु जी के साथ १८ हाइकुकारों की हाइकु रचनाओं का संपादन.
सदस्य- संपादक समिति सिडनी से प्रकाशित "हिन्दी गौरव" मासिक पत्रिका
अन्य योगदान: स्वनिर्मित जालघर :
http://drkunwarbechain.blogspot.com/
http://leelavatibansal.blogspot.com/
संप्रति: सिडनी यूनिवर्सिटी में अध्यापन
अभिरुचि: साहित्य लेखन, अध्ययन,चित्रकला एवं देश-विदेश की यात्रा करना।
संपर्क: bhawnak2002@yahoo.co.in
        bhawnak2002@gmail.com




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महफ़िल-ए-ग़ज़ल : डॉ. विजय कुमार सुखवानी की ग़ज़लें

ग़ज़ल १.

हमारे साध कुछ मुगालते रहते हैं
हम उम्र भर उन्हें पालते रहते हैं

कुछ यादें हर पल साथ रहती हैं
कुछ ग़म उम्र भर सालते रहते हैं

फैसले जो सबसे जरूरी होते हैं
हम न जाने क्यूं टालते रहते हैं

बच्चे तो अपनी दुनिया बसा लेते हैं
माँ-बाप तस्वीरें संभालते रहते हैं

नेकी कर दरिया में डाल नहीं पाते
गुनाह कर दरिया में डालते रहते हैं

ग़ज़ल २.

हर इंसान के दिल में गर इंसानियत आ जाये
यकीं मानिये ज़मी पर उतर कर जन्नत आ जाये

दिल तो खुदा ने बनाया है मुहब्बत के वास्ते
वो दिल ही क्या जिसमें जरा भी नफरत आ जाये

देख कर शहर की फजां हर माँ करती है दुआ
कि उसका बच्चा वापस सही सलामत आ जाये

हजारों ऐब आ जायेंगे उस एक मुफ्लिस में
जिसके हिस्से में बस जरा सी दौलत आ जाये

जब कुछ नहीं है तो खुद को समझता है खुदा
क्या हो गर इंसां में खुदा सी ताक़त आ जाये

ख़त्म हो जायेंगे मंदर औ मस्जिद के झगड़े
गर इंसान को सलीका-ए-इबादत आ जाये

हर वक़्त रखिये आखिरी सफ़र की तैयारी
न जाने कब कहाँ लम्हा-ए-रुखसत आ जाये

ग़ज़ल ३.

हर तरह के तजुर्बे ज़िन्दगी में मिलते हैं
कुछ अंधेरों के पते रोशनी में मिलते हैं

कभी हम एक ही घर में रहा करते थे
आज कल शादी और गमी में मिलते हैं

तमाम उम्र आसमानों में उड़ते रहते हैं
मगर आखिर में सब जमीं में मिलते हैं

कोई न कोई खूबी हर इंसां में होती है
कुछ न कुछ ऐब हर किसी में मिलते हैं

होश में अक्सर झूठ बोलने वाले भी
सच बोलते हैं जब बेखुदी में मिलते हैं

बुरे लोगों में भी अच्छाई ढूंढते रहो
कभी-कभी खजाने गंदगी में मिलते हैं
***

नाम- डॉ. विजय कुमार सुखवानी
जन्म तिथि- ०१ अक्टूबर १९६९
जन्म स्थान- ग्वालियर म.प्र.
शिक्षा- आई आई टी मुम्बई से मैकेनिकल इंजीनियरिंग में पीएचडी
भाषा ज्ञान- हिंदी अंग्रेजी उर्दू सिंधी
सम्प्रति- रीडर मैकेनिकल इंजीनियरिंग विभाग शासकीय इंजीनियरिंग कालेज उज्जैन म.प्र.
रचना कार्य– प्रमुख पत्र पत्रिकाओं व सभी महत्वपूर्ण वेब पत्रिकाओं में रचनाओं का निरंतर प्रकाशन
एक ग़ज़ल संग्रह प्रकाशाधीन
रुचियाँ- हिंदी सिनेमा में गहरी रूचि विशेषकर हिंदी फिल्मी गीतों का गहन अध्यन
ईमेल- v_sukhwani@rediffmail.com
मोबाइल- 9424878696


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